७:४४ की ट्रेन।

दस्तूर ए ज़माना है ये

एक ट्रेन गयी तो दूसरी पकड़ लेना!

न जाने क्या ख़ास बात है ऐसी कई ट्रेनों में,

जिसे पकड़ने पांच मिनट दूरी पे से अवाम दौड़े आती है।

शायद उन्हें वो ट्रेन उनके मंज़िल पे वक़्त पर पहुंचाती है,

शायद उन ट्रेनों की सीटें उन्हें इत्मीनान से बिठाती है।

उनकी फ़ास्ट ट्रेन दोड़ के पकड़ते है कोई, 

२ घंटे में एक बार आने वाली ट्रेन का इंतज़ार करते है।

वाशी में ठाने के मुंतज़िर, नेरूल के आगे खारकोपर के,

हम तो ७:४४ की ही पनवेल ट्रेन में जाने के लिए मरते हैं।

इस ट्रेन को पकड़ने हम पी. टी. उषा बन जाते हैं।

ये  सुबह की ७:४४ की ट्रेन मुझे वक़्त पर मेरी मंज़िल पर पहुंचाती है।

इस कदर ऐसी ट्रेनें उनके हमारे ज़िन्दगी में ज़रूरी है,

किसी की भीड़ कम वाली ट्रेन में जाने की मंज़ूरी है,

किसी की वक़्त पर अपने मक़ाम पहुंचने की मजबूरी है।

ऐसी ट्रेन की तरह कोई न‌ कोई ज़रूर होता है हर किसी की ज़िन्दगी में जिसके पास पूरी कायनात हो इख्तियार में,

मगर वो चुनता सिर्फ़ उसे हैं जिसके साथ वो अपना सफ़र ए ज़िन्दगी करके उसे अपनी मंज़िल बनाता है उसके प्यार में।