मैं नहीं जानती




जान बसती है उसमें मेरी,
मैं नहीं जानती मुहब्बत क्या है।
देखते ही उसको अपनी नज़रें झुका लेती हूं,
मैं नहीं जानती इबादत क्या है।
सिर्फ़ उसी से सारी ख़ुशियां मिलती है,
मैं नहीं जानती इनायत क्या है।
उसे ही देखकर अल्फ़ाज़-ए-मुहब्बत लिखती हूं,
मैं नहीं जानती आयत क्या है।
नहीं पसन्द मुझे उसकी फ़ुरक़त,
मैं नहीं जानती क़ुरबत क्या है।
वक़्त निकाले बग़ैर उसे अपना वक़्त देना पसन्द करती हूं,
मैं नहीं जानती फ़ुरसत क्या है।
इक वो साथ हो तो कोई नहीं चाहिए,
मैं नहीं जानती ज़रूरत क्या है।
नहीं जानना मुझे उसकी जेब का,
मैं नहीं जानती मुहब्बत में सर्वत ग़ुरबत क्या है।
नहीं बर्दाश्त मुझे अपने में कोई तीसरा,
मैं नहीं जानती शिकायत क्या है।
जो जगह उसकी मेरे दिल में है उसे हर्फ़ बनाए लिखती हूं,
मैं नहीं जानती हिकायत क्या है।